सोयाबीन की कृषि कार्यमाला
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मक्का की कृषि कार्यमाला
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भूमि का चुनाव एवं तैयारी
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मध्यम से भारी भूमि जिसमें जल निकास अच्छा हो, सबसे उपयुक्त होती है। लवणीय, क्षारीय एवं निचली भूमि जहां पानी का भराव होता हो वहां मक्का नही लगाना चाहिये। खेत की एक या दो बार हल से जुताई करें तथा बाद में दो बार बखर चलाकर मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरी बना लेना चाहिये। अंतिम बखरनी के समय 2 प्रतिशत फालीडाल डस्ट 8 से 10किलो प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करना चाहिये ।
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मक्का की जातियाँ -
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क्षेत्र की उपयुक्ता के अनुसार मक्का की उन्नत जातियों का चुनाव करना चाहिये । मक्का की उन्नत जातियाँ निम्नानुसार है :-
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संकर जातियाँ -
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मक्का की कम्पोजिट जातियाँ (संकुल) -
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सूर्या एवं जवाहर मक्का -
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ये जातियाँ 90-95 दिनों में पककर तैयार हो जाती है एवं इनकी औसत उपज 14-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है । इनका दाना पीला एवं आकार में कुछ चपटा होता है ।
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बीज -
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मक्का का बीज छोटे या बड़े दानों के आकार के अनुसार लगता है जो प्राय: 6 से 7 किलो प्रति एकड़ की दर से बोया जाता है ।
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बोने का समय एवं तरीका -
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मक्का की फसल वर्षा होने पर बोई जाती है । यदि कृषकों के पास सिंचाई का साधन हो तो 10-15 दिन पूर्व में बोआई करने से इसकी अधिक पैदावार मिलती है । बुआई में कतार से कतार की दूरी 75 से.मी. (2 1/2 फीट) एवं पौधों से पौधों की दूरी 20 से.मी. ( 8'') रखनी चाहिये । मक्का का बीज 3 से 5 से.मी. गहराई पर बोने से अंकुरण होता है । इसे अधिक गहरा नहीं बोना चाहिये क्योंकि फिर मक्का के बीज का अंकुरण कम होता है ।
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जैविक खाद -
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मक्का की फसल में शीघ्र पकने वाली जातियों में नाडेप कम्पोस्ट 6 से 8 टन या वर्मी कम्पोस्ट 3.5-4 टन प्रति एकड़ तथा देर से पकने वाली जातियों में 8-10 टन नाडेप कम्पोस्ट या 4 से 5.25 टन वर्मी कम्पोस्ट प्रति एकड़ देने से मक्का का भरपूर उत्पादन मिलता है । इसके साथ ही पी.एस.बी. कल्चर 800 किलोग्राम प्रति एकड़ डालना चाहिये जिससे फसल को अघुलनशील फास्फोरस उपलब्ध हो सके ।
अमृत भभूत पानी, अमृत संजीवनी एवं मटका खाद का 3 से 4 बार उपयोग करने से मक्का की फसल अच्छी होती है । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
रासायनिक खाद -
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मक्का में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग वैसे तो मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिये किन्तु सामान्यत: संकर जातियों के लिये 48 नत्रजन 20 स्फुर तथा 16 किलो पोटाश प्रति एकड़ तथा देर से पकने वाली जातियों के लिये 40 नत्रजन, 16स्फुर तथा 12 किलो पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिये।
भारी भूमि में नत्रजन की1/3 मात्रा बोआई के समय एवं शेष2/3 मात्रा लगभग एक माह की फसल होने पर देना चाहिये । फास्फोरस एवं पोटाश की पूर्ण मात्रा बुआई के समय या पूर्व में देना चाहिये । हल्की भूमि में शेष2/3 मात्रा दो बार जब पौधों 60 से.मी. हो या 30 दिन के एवं मांझर निकलते समय देना चाहिये। यदि मिट्टी परीक्षण के आधार पर भूमि में जिंक की कमी पाई जावे तो भारी भूमि में 20 किलो तथा हल्की भूमि में 10 किलो प्रति एकड़ की दर से जुताई से पूर्व जिंक सल्फेट डालना चाहिये । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
निदाई गुड़ाई -
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मक्का की फसल के बुआई के तुरन्त बाद या अंकुरण होने के पूर्व भूमि में नमी होने पर टेफजीन 600 ग्राम या एट्राजीन400 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिये । इससे प्रमुख नींदाओं का नियंत्रण होगा ।
बोनी के 15-20 दिन बाद कतारों के बीच में डोरा चलाते है जिससे निंदाई एवं गुडाई दोनों ही होते है । बोनी के 30 दिनों बाद जब पौधे 60 से.मी. ऊँचे हो तब मिट्टी चढ़ना चाहिये । मांझर निकलते समय यदि वर्षा न हो एवं सिंचाई करने की सुविधा हो तो, इस समय कृषकों को पानी देना चाहिये ।
खेत में पानी का निकास अवश्य होना चाहिये क्योंकि एक ही स्थान पर पानी जमा होने से फसल की बढ़वार रूकती है एवं पैदावार में कमी आती है । अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मक्का की बोआई मेंढ़ों पर करना चाहिये ।
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पौध संरक्षण
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जैविक कीट नियंत्रण :
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मक्का की फसल में तनाछेदक इल्ली, कम्बल कीड़ा, आर्मीवर्म, ग्रास होपर, जेसिड एवं एफिडस आदि का नियंत्रण जैविक कीट नियंत्रण द्वारा सफलपूर्वक निम्नानुसार तरीकों से किया जा सकता है -
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रासायनिक कीट नियंत्रण :
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(1) व्हाइट ग्रब : इसकी इल्लियाँ पौधे की जड़ों को काटती है ।
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रोकथाम
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थायोडान डस्ट 4% या फालीडाल डस्ट 2% या कार्बोरिल 10% डस्ट का 8 से 10 किलो प्रति एकड़ की दर से जुताई के पूर्व बुरकाव कर, फिर जुताई करें।
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(2) तनाछेदक इल्ली : इसकी इल्लियाँ कोमल पत्तों को खाकर तने में घुस जाती है जिससे पौधों के बीच का भाग सूख जाता है एवं डेड हार्ट बन जाता है ।
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रोकथाम
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इसकी रोकथाम के लिये डेमेक्रान 35 ई.सी. 80 मि.ली. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें या थायोडान दानेदार दवा 4 किलो प्रति एकड या कार्बोफ्यूरॉन 4 जी 4-6 दाने प्रति पोंगली के हिसाब से पौधों की पाेंगलियों में डालें।
इसके अलावा कम्बल कीड़ा, ग्रास होपर, आर्मीवार्म, जेसिड, एफिडस आदि का नियंत्रण नुवाक्रान 36 ई.सी. 200मि.ली. या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 400 मि.ली को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें । या डस्ट में थायोडान डस्ट 4% या फालीडाल डस्ट 2% या इकालक्स डस्ट 1.5% को 8 किलो प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीमारियाँ :
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लीफ स्पाट : इस बीमारी में लम्बे, गहरे-भूरे रंग के धब्बे होते हैं । इन धब्बों के ज्यादा होने पर पत्तियाँ सूख जाती हैं ।
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रोकथाम :
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इसकी रोकथाम के लिये डाइथेन जेड़-78 की 280 से 320 ग्राम मात्रा पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें ।
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फसल कटाई एवं गहाई :
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जब भुट्टे अच्छी तरह पककर सूख जावें तो फसल काट लेना चाहिये । भुट्टों के ऊपर के पत्ते हाथ से निकालते हैं एवं बाद में भुट्टों के दाने मेज शेलर या हंसिया से निकालते हैं । जब दानों में 10 से 12% आर्द्रता रहे तब इसका भण्डारण करना चाहिये । दानों का भण्डारण करने के पूर्व बोरों पर 0.05% मेलाथियान का घोल छिड़काव करें एवं अच्छी तरह बोरों को सुखाने के बाद ही उनमें दानों का भण्डारण करें । बण्डों में भी 0.05% का मेलाथियान का घोल बनाकर छिडकें एवं सूखने पर भण्डारण करें । जैविक रूप से भण्डारण में नीम की पत्तियाँ मिलाकर रख सकते हैं।
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अ. भूरा अवस्था : गेंहू की पत्तियां पर नारंगी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है जो गोल होते हैं
ब. काला गेरुआ : इसका प्रकोप अधिकतर तने पर आता है।
स. पीला गेरुआ : इस रोग में पत्तियां की उपरी सतह पर पीले रंग धब्बे उभर आते हैं।
बारानी दशा में : 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ं
गेंहू की कृषि कार्यमाला (संक्षिप्त)
भूमि का चुनाव एवं तैयारी -
गेंहू की खेती उचित जल प्रबंध के साथ सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। विपुल उत्पादन के लिये गहरी एवं मध्यम दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त है।
असिंचित क्षेत्र
वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में छोटे-छोटे कन्टूर बना कर भूमि के कटाव और प्रत्येक जल को रोका जाना चाहिये। गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें। नमी संरक्षण हेतु प्रत्येक वर्षा के बाद बतर आने पर समय-समय पर खेत की जुताई करते रहें तथा वर्षा समाप्त होने पर प्रत्येक जुताई के बाद अवष्य लगायें।
सिंचित क्षेत्र
खरीफ फसल काटने के तुरंत बाद ही जमीन की परिस्थिति के अनुसा जुताई करें। यदि खेत कड़ा हो और जुताई सम्भव न हो तब सिंचाई देकर जुताई करें। दो या तीन बार बखर या हल चलाकर जमीन भुरभुरी करें, अंत में पाटा चलाकर भूमि समतल बनायें।
बुवाई का समय
बुवाई का समय - सिंचाई की व्यवस्था के आधार पर निम्नानुसार बोनी करे-
- असिंचित गेंहू-15 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक, 2. अर्धसिंचित गेंहू 15 अक्टूबर से 10 नवंबर तक, 3. सिंचित गेंहू (समय से) 10नवंबर से 25 नवम्बर तक, 4. सिंचित गेंहू (देरी से) 05 दिसम्बर से 20 दिसम्बर तक।
बीज की मात्रा
सिंचित एवं असिंचित किस्मों के लिये 40 किलो, असिंचित देर से बोई जाने वाली किस्मों के लिये 48 किलो प्रति एकड़ बीज दर रखी जाती है।बीज की मात्रा का निर्धारण दानों के वजन एवं अंकुरण क्षमता पर निर्भर करता है। सामान्यत: 38 ग्राम प्रति एक हजार बीज के वजन वाली किस्मों का बीज 40 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से बोयें। देरी से बोनी की स्थिति में बीज दर में 20-25 प्रतिशत बढ़ोतरी करके बोनी करें। अंकुरण कम होने की दशा में बीज दर आवष्यकता अनुसार निर्धारण कर बोनी करें।
बीजोपचार
दीमक के नियंत्रण हेतु बीज को कीटनाशक दवा क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. 400 मि.ली. 5 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति क्विंटल बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। इसके पष्चात् कार्बोक्सिन (विटावेक्स 75 डब्ल्यू.पी.) या बेनोमिल (बेनलेट 50 डब्ल्यू.पी.) 1.5-2.5 या थाइरम 2.5 - 3 ग्राम दवा ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई पूर्व बीज को एजेटोबेक्टर 5-10ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 10-20 ग्राम प्रति किलो ग्राम के हिसाब से उपचारित करें।
बुवाई का तरीका
असिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. अर्धसिंचित अवस्था में कतार की दूरी 23-25 से.मी. तथा सिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 20 -23 से.मी. रखें। पिछेती बोनी की अवस्था में कतार से कतार की दूरी 15-18 से.मी. रखना चाहिये। बीज की बुवाई3 -4 से.मी. गहराई पर करें। शुष्क बुवाई की स्थिति में उथली बोनी अंकुरण के लिये लाभप्रद होती है।
उन्नत किस्में --
क्र | कृषि पारिस्थितिकी | पिसी किस्में | कठिया किस्में | अवधि दिनों में Æ | उपज क्विं प्रति एकड़ |
1 | असिंचित/अर्धसिंचित | जे.डब्ल्यू.एस. - 17, सुजाता एच.डब्ल्यू. 2004 एच.आई. 1500 एम.पी. 3020, सी 306 | एच.डी. 4672 अमर, एच.आई. 8627 | 135-140 | 6-8 |
2 | सिंचित समय पर बोनी हेतु | एम.पी. 142, एच.आई. 1077, जी.डब्ल्यू 273, जी.डब्ल्यू 322, जी.डब्ल्यू 190 | राज 1555, एच.डी. 4530, एच.आई. 8498, एच.आई 8381, जे.डब्ल्यू 1106 सुधा | 115-125 | 16-20 |
3 | सिंचित देरी से बोनी हेतु | डी.एल. 788-2, लोक- 1, जी.डब्ल्यू 173, एम.पी. 4010, एच.डी. 2864 | - | 95-110 | 15-16 |
खाद उर्वरक की मात्रा
अ. असिंचिम अवस्था
आधार खाद के रुप में 16 किलो ग्राम नत्रजन, 8 किलोग्राम स्फुर प्रति एकड़ बुवाई के समय दुफन या नारी के अगले पोर से देना चाहिये। मिट्टी परीक्षण में यदि पोटाश की मात्रा कम पाई जाती है तो 4 किलो ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के समय देना चाहिये। खाद को बीज से 2-3 से.मी. नीचे डालना चाहिये।
ब. अर्धसिंचित अवस्था
नत्रजन 24 किलोग्राम, स्फुर 16 किलोग्राम तथा 8 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिये। स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी बोनी के समय आधार रुप में, शेष आधी 12 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ प्रथम सिंचाई पर दें।
स. सिंचित अवस्था
सिंचित अवस्था - सिंचित अवस्था मेें नत्रजन 40-48 किलोग्राम, स्फुर 24 किलो ग्राम तथा पोटाश 12 किलोग्राम प्रति एकड़ देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन आधार रुप में 1/2 तथा पूरी मात्रा में स्फुर व पोटाश देना चाहिये। शेष 1/2 नत्रजन में से 1/4 प्रथम सिंचाई 20-21पर तथा 1/4 दूसरी सिंचाई 40-45 दिनों पर देना चाहिये। जिन खेतों में मिट्टी परीक्षण जस्ते की कमी पाई जाती है वहां 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ बुवाई के पहले खेत में आधार खाद के रुप में देना चाहिये। यदि खेतों में सतत् गेंहू की खेती की जा रही है तो 2 वर्ष में एक बार 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से जिंक सल्फेट डालना चाहिये।
सिंचाई प्रबंधन
सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर गेंहू की विभिन्न अवस्थाओं पर निम्न तालिका के अनुसार सिंचाई करें-
सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर गेंहू की विभिन्न अवस्थाओं पर निम्न तालिका के अनुसार सिंचाई करें-
सिंचाई
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शीर्ष जड़ अवस्था
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कल्ले बनने की अवस्था
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गभोट की अवस्था
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फूल बनने की अवस्था
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दूध अवस्था
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दाने भरने की अवस्था
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18-21 दिन
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40-42 दिन
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55-60 दिन
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65-70दिन
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80-85 दिन
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100-105 दिन
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एकसिंचाई
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x
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x
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x
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दो सिंचाई
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तीन सिंचाई
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x
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चार सिंचाई
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x
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x
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पांच सिंचाई
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x
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छ: सिंचाई
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√
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√
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√
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√
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√
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√
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खरपतवार प्रबंधन
अ. चौड़ी पत्ति वाले खरपतवार
इनके नियंत्रण के लिये 2-4, डी- सोडियम साल्ट 200 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर 200 लीटर पानी में घोल बनाकर 25-30 दिन बाद छिड़काव करें। दवा का 40 दिन बाद छिड़काव फसल के लिये हानिप्रद होता है। गेंहू के साथ चना, मसूर, मटर की फसल होने पर इस दवा का प्रयोग न करें।
ब. सकरी पत्ती वाले खरपतवार
संकरी पत्ती वाले खरपतवार में जंगली जई, चिरैया बाजरा की समस्या पाई गई है। इससे बीज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिन खेतों में खरपतवार दिखाई दे उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर दें। यदि खेत में नींदा बहुत अधिक है तो फसल चक्र अपनायें। ऐसी स्थिति में बरसीम या रिजका की फसल लेना लाभप्रद है क्योंकि चारे की कटाई के साथ ये खरपतवार कट कर नष्ट हो जाते हैं। रासायनिक नियंत्रण हेतु-
- मेटाक्सुरान (डोसानेक्स) 400-600 ग्राम सक्रिय तत्व या पेन्डीमिथलीन 400 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर से बोनी के तुरंत बाद तथा अंकुरण के पहले 250 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
- आइसोप्रोटूरान 300 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ 250 लीटर पानी में घोल बनाकर बोनी के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें। इसके प्रयोग से दोनों ही प्रकार के खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते हैं।
- खेत में दोनों प्रकार के नींदा है तो आइसोप्रोटूरान 300 ग्राम सक्रिय तत्व तथा 2-4, डी 200 ग्राम सक्रिय तत्व का मिश्रण प्रति एकड़ की दर से उपरोक्त बताई विधि अनुसार उपयोग करें। इस मिश्रणों के प्रयोग से चिरैया, बाजरा, जंगली जई एवं अन्य खरपतवारों को प्रभावी रुप से नियंत्रित किया जा सकता है।
- नींदा नाशक दवा का छिड़काव प्रथम सिंचाई के एक सप्ताह बाद करें। छिड़काव के समय मिट्टी में नमी का होना अति आवष्यक है।
पौध संरक्षण-
अ. रोग
गेंहू की उपज पर रोग के प्रकोप से उपज में काफी प्रभाव होता है। केवल गेरुआ रोग से ही गेंहू की उपज में लगभग 12 प्रतिशत की हानि होती है।
अ. भूरा अवस्था : गेंहू की पत्तियां पर नारंगी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है जो गोल होते हैं
ब. काला गेरुआ : इसका प्रकोप अधिकतर तने पर आता है।
स. पीला गेरुआ : इस रोग में पत्तियां की उपरी सतह पर पीले रंग धब्बे उभर आते हैं।
इन रोगों की रोकथाम के लिये रोगरोधी किस्में लगायें तथा उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करें, फसल की सामयिक बोनी करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर जिंक मेंगनीज कार्बामेट 800 ग्राम या जिनेव 1 किलो ग्राम पति एकड़ 400 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें।
कड़वा रोग - यह बीज जनित रोग है। रोगी पौधों में बलियां कुछ पहले निकल आती हैं। इन बालियों में दानों के स्थान पर कहै, जो हवा केझोंके के साथ एक पौधे से दूसरे पौधों तक पहुंच जाता है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिये। रोगरोधी किस्मों काोला चूर्ण भरजाता ही लगाना चाहिये। बोनी के पहले बीज को बीटावेक्स कार्बोक्सिन 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
कड़वा रोग - यह बीज जनित रोग है। रोगी पौधों में बलियां कुछ पहले निकल आती हैं। इन बालियों में दानों के स्थान पर कहै, जो हवा केझोंके के साथ एक पौधे से दूसरे पौधों तक पहुंच जाता है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिये। रोगरोधी किस्मों काोला चूर्ण भरजाता ही लगाना चाहिये। बोनी के पहले बीज को बीटावेक्स कार्बोक्सिन 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
- कर्नलबंट - इस रोग का प्रभाव पर होता है। दानों में काले रंग का पावडर बन जाता है। यह रोग बीज द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम के लियेजिस खेत में रोग लगा हो उस खेत में 2-3 वर्ष तक गेंहू नहीं बोना चाहिये। बोने से पहले बीज को थायरम 2.5ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज केदर से उपचारित करें। फूलने की अवस्था में सिंचाई न करें।
- पर्ण ब्लास्ट - पत्तियां किनारों से सूखना प्रारम्भ करती है। आरम्भ में पत्तियो में अंडाकर सूखे धब्बे दिखाई देते हैं, बाद में यह टूटकर पूरी पत्तियाें में फैल जाते है। नियंत्रण हेतु डायथेन (एम-45 0.25 प्रतिशत) के घोल का छिड़काव फसल पर करें।
ब. कीट
गेंहू की फसल में दीमक, जडमाहो, भूरी मकड़ी आदि कीटो का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण हेतु एकीकृत कीट प्रबंधन विधि अपनाये।
एकीकृत कीट प्रबंधन
- खेत की अच्छी तरह जुलाई करना चाहिये।
- कच्ची व अधपकी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि इसके प्रयोग से दीमक के प्रकोप की सम्भावना अधिक होती है।
- खेत के आसपास मेढ़ो में यदि दीमक का बमीठा हो तो उसे गहरा खोदकर नष्ट कर देना चाहिये।
- गेंहू की बुवाई समय पर तथा बीज उपचारित करें। यदि दीमक के प्रकोप की सम्भावना है तब बीज को क्लोरोपायरीफास 20ई.सी. 400 मि.ली. 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलोग्राम बीज का उपचारित करें। देरी से बोये गये (दिसम्बर-जनवरी) गेंहू पर जड़ माहो का प्रकोप अधिक होता है। अत: समय पर बोनी करें।
- खड़ी फसल पर दीमक या जडमाहो का प्रकोप होने पर क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 500 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से दवा को सिंचाई जल के साथ दें। अर्धसिंचित भूमि में उपरोक्त दवा की मात्रा 3 लीटर पानी में घोलकर 50 किलोग्राम रेत में मिलाकर खेत में फैलाकर पानी लगावें।
- अर्धसिंचित फसल में नवम्बर-दिसम्बर माह में कल्ला छेदक भृंग नियंत्रण के लिये मेलाथियान 200 मि.ली. या मिथाइल डेमेटान250 मि.ली. दवा का 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। इससे जेसिड का भी नियंत्रण हो जाता है।
- भूरी मकड़ी का प्रकोप असिंचित गेंहू पर होता है। नियंत्रण के लिये फारमोथियान 25 ई.सी. का 260 मि.ली. प्रति एकड़ या मिथाइल डेमेटान का 260 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद दवा का पुन: छिड़काव करें।
कटाई एवं गहाई
- पकी फसल की कटाई जल्दी करना चाहिये, क्योंकि आग एवं ओला से कभी-कभी पकी फसल को बहुत नुकसान होता है। अधिक पकी फसल काटने से बालियां टूटती है और दाने झड़ते है। फसल की कटाई सुबह और शाम के समय करना चाहिये,इससे दाने कम झड़ेंगे। कटाई तेज धार वाले हंसिया से करना चाहिये। काटी गई फसल को तुरंत बोझों में बाँध लेना चाहिये,क्योंकि कटाई के समय तेज हवा चलने से कटी हुई फसल उड़ कर खराब हो जाती है। काटी गई फसल के बोझों को बैलगाड़ी या ट्रेक्टर ट्राली से ढुलाई करके खलिहान से इकट्ठा करना चाहिये। खलिहान में थ्रेसर या बैलों से गहाई करना चाहिये। इसके बाद उड़वानी द्वारा दाना अलग करके धूप में सुखाकर भंडारित करना चाहिये। खलिहान में आग और चूहों से बचाव करना चाहिये।
बारानी दशा में : 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ं
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चना की कृषि कार्यमाला --
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भूमि का चुनाव एवं तैयारी -
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चने की खेती क्षारीय भूमि के अतिरिक्त सभी प्रकार की मध्यम से भारी भूमि भूमि में की जा सकती है। खरीफ फसल कटाई उपरान्त हल या ट्रेक्टर से जुताई कर बखरनी की जावे । यदि ढेले बहुत बड़े हो तो पटेला चलावें । यदि ढ़ेले बहुत बड़े हों तो पलेवा कर खेत तैयार करें ।
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बोने का समय -
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चने की बोआई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर है। देरी से बोनी की स्थिति में दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक भी बोनी की जा सकती है। देरी से बोनी करने के लिए कम अवधि की किस्मों का चयन आवश्यक होगा।
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चने की उत्तम जातियाँ :-
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बीज की मात्रा एवं बुवाई की विधि-
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बीज स्वस्थ एवं अच्छी अंकुरण क्षमता का हो। चना फसल बोने के लिए 30 किलो बीज प्रति एकड़ लगता है । देरी से बोने एवं दानों का आकार बड़ा होने पर 40 किलो तक बोया जा सकता है। चने में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए ।
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बीजोपचार :-
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बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु बीजोपचार आवश्यक हैं बोनी के पूर्व 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा बिरडी प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम पी.एस.बी. कल्चर से बीजोपचार करवाना चाहिए । ट्राइकोडरमा बिरडी न मिलने पर 3 ग्राम थीरम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में कल्चर एवं पी.एस.बी. से बीजोपचार करना चाहिए ।
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जैविक खाद एवं उर्वरक -
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चने की फसल में असिंचित दशा में 1.50 टन नाड़ेप खाद एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. या 2 टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. देने से अच्छी उपज मिलती है। सिंचिंत फसल में 2 टन नाडेप खाद एवं 1.20 किलो पी.एस.बी. कल्चर या 1-2टन वर्मी कल्चर एवं 1.2 किलोग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति एकड़ देने से अच्छी उपज मिलती है।
2 टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. तथा 20 किलो डी.ए.पी. प्रति एकड़ देने से भी चना का भरपूर उत्पादन मिलता है । नाडेप एवं वर्मीकम्पोस्ट के साथ 20 किलो डी.ए.पी. से भी भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचाई :-
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चने की फसल में दो सिंचाई लगती है, पहली 45 दिन में फल आने पर तथा दूसरी 75 दिन बाद फल बनने पर करना चाहिए । यदि सिंचाई उपलब्ध है तो फूल आने के पहले 40 - 45 दिन में सिंचाई करनी चाहिए।
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कीट नियंत्रण :-
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चने की फसल में चने की इल्ली का प्रकोप ही अधिक होता है । इसका पहले जैविक नियंत्रण करना चाहिए । यदि जैविक नियंत्रण से कंट्रोल न हो तो फिर रासायनिक कीट नाशकों का उपयोग करना चाहिए।
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जैविक कीट नियंत्रण :-
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चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
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रोग एवं नियंत्रण :-
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चना फसल में जड तथा तने में निम्न रोग लगते है:-
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नियंत्रण :-
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चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
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भण्डारण :-
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चना को अच्छी तरह सुखाकर फिर छाया में ठंडा कर सफाई कर एवं नीम की पत्ती या मेलाकिया 0.05% का स्प्रे भण्डार गृह या बोरां में करें । कीडे का प्रकोप होने पर ई.डी.बी. एम्पूल्स 3 एम.एल. प्रति क्विटल के हिसाब से डाले ।
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रबी फसल - गेंहू
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गेंहू की कृषि कार्यमाला (संक्षिप्त)
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भूमि का चुनाव एवं तैयारी -
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गेंहू की खेती उचित जल प्रबंध के साथ सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है।
विपुल उत्पादन के लिये गहरी एवं मध्यम दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
असिंचित क्षेत्र
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वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में छोटे-छोटे कन्टूर बना कर भूमि के कटाव और प्रत्येक जल को रोका जाना
चाहिये। गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें। नमी संरक्षण हेतु प्रत्येक वर्षा के बाद बतर आने पर समय-समय पर खेत की जुताई करते रहें तथा वर्षा समाप्त होने पर प्रत्येक जुताई के बाद अवष्य लगायें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचित क्षेत्र
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खरीफ फसल काटने के तुरंत बाद ही जमीन की परिस्थिति के अनुसा जुताई करें। यदि खेत कड़ा
हो और जुताई सम्भव न हो तब सिंचाई देकर जुताई करें। दो या तीन बार बखर या हल चलाकर जमीन भुरभुरी करें, अंत में पाटा चलाकर भूमि समतल बनायें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बुवाई का समय
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बुवाई का समय - सिंचाई की व्यवस्था के आधार पर निम्नानुसार बोनी करे-
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बीज की मात्रा
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सिंचित एवं असिंचित किस्मों के लिये 40 किलो, असिंचित देर से बोई जाने वाली किस्मों के लिये
48 किलो प्रति एकड़ बीज दर रखी जाती है। बीज की मात्रा का निर्धारण दानों के वजन एवं अंकुरण क्षमता पर निर्भर करता है। सामान्यत: 38 ग्राम प्रति एक हजार बीज के वजन वाली किस्मों का बीज 40 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से बोयें। देरी से बोनी की स्थिति में बीज दर में 20-25 प्रतिशत बढ़ोतरी करके बोनी करें। अंकुरण कम होने की दशा में बीज दर आवष्यकता अनुसार निर्धारण कर बोनी करें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीजोपचार
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दीमक के नियंत्रण हेतु बीज को कीटनाशक दवा क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. 400 मि.ली. 5 लीटर पानी
में घोल बनाकर प्रति क्विंटल बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। इसके पष्चात् कार्बोक्सिन(विटावेक्स 75 डब्ल्यू.पी.) या बेनोमिल (बेनलेट 50 डब्ल्यू.पी.) 1.5-2.5 या थाइरम 2.5 - 3 ग्राम दवा ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई पूर्व बीज को एजेटोबेक्टर 5-10ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 10-20 ग्राम प्रति किलो ग्राम के हिसाब से उपचारित करें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बुवाई का तरीका
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असिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. अर्धसिंचित अवस्था में कतार की दूरी
23-25 से.मी. तथा सिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 20 -23 से.मी. रखें। पिछेती बोनी की अवस्था में कतार से कतार की दूरी 15-18 से.मी. रखना चाहिये। बीज की बुवाई3 -4 से.मी. गहराई पर करें। शुष्क बुवाई की स्थिति में उथली बोनी अंकुरण के लिये लाभप्रद होती है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उन्नत किस्में --
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खाद उर्वरक की मात्रा
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अ. असिंचिम अवस्था
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आधार खाद के रुप में 16 किलो ग्राम नत्रजन, 8 किलोग्राम स्फुर प्रति एकड़ बुवाई के समय दुफन या
नारी के अगले पोर से देना चाहिये। मिट्टी परीक्षण में यदि पोटाश की मात्रा कम पाई जाती है तो 4 किलो ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के समय देना चाहिये। खाद को बीज से 2-3 से.मी. नीचे डालना चाहिये। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
ब. अर्धसिंचित अवस्था
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नत्रजन 24 किलोग्राम, स्फुर 16 किलोग्राम तथा 8 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिये। स्फुर एवं
पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी बोनी के समय आधार रुप में, शेष आधी 12 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ प्रथम सिंचाई पर दें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
स. सिंचित अवस्था
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सिंचित अवस्था - सिंचित अवस्था मेें नत्रजन 40-48 किलोग्राम, स्फुर 24 किलो ग्राम तथा पोटाश
12 किलोग्राम प्रति एकड़ देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन आधार रुप में 1/2 तथा पूरी मात्रा में स्फुर व पोटाश देना चाहिये। शेष 1/2 नत्रजन में से 1/4 प्रथम सिंचाई 20-21पर तथा 1/4 दूसरी सिंचाई 40-45 दिनों पर देना चाहिये। जिन खेतों में मिट्टी परीक्षण जस्ते की कमी पाई जाती है वहां 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ बुवाई के पहले खेत में आधार खाद के रुप में देना चाहिये। यदि खेतों में सतत् गेंहू की खेती की जा रही है तो 2 वर्ष में एक बार 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से जिंक सल्फेट डालना चाहिये।
सिंचाई प्रबंधन
सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर गेंहू की विभिन्न अवस्थाओं पर निम्न तालिका के अनुसार सिंचाई करें-
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खरपतवार प्रबंधन
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अ. चौड़ी पत्ति वाले खरपतवार
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इनके नियंत्रण के लिये 2-4, डी- सोडियम साल्ट 200 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर 200 लीटर
पानी में घोल बनाकर 25-30 दिन बाद छिड़काव करें। दवा का 40 दिन बाद छिड़काव फसल के लिये हानिप्रद होता है। गेंहू के साथ चना, मसूर, मटर की फसल होने पर इस दवा का प्रयोग न करें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
ब. सकरी पत्ती वाले खरपतवार
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संकरी पत्ती वाले खरपतवार में जंगली जई, चिरैया बाजरा की समस्या पाई गई है। इससे बीज की
गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिन खेतों में खरपतवार दिखाई दे उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर दें। यदि खेत में नींदा बहुत अधिक है तो फसल चक्र अपनायें। ऐसी स्थिति में बरसीम या रिजका की फसल लेना लाभप्रद है क्योंकि चारे की कटाई के साथ ये खरपतवार कट कर नष्ट हो जाते हैं। रासायनिक नियंत्रण हेतु-
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पौध संरक्षण-
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अ. रोग
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गेंहू की उपज पर रोग के प्रकोप से उपज में काफी प्रभाव होता है। केवल गेरुआ रोग से ही गेंहू की
उपज में लगभग 12 प्रतिशत की हानि होती है। अ. भूरा अवस्था : गेंहू की पत्तियां पर नारंगी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है जो गोल होते हैं ब. काला गेरुआ : इसका प्रकोप अधिकतर तने पर आता है। स. पीला गेरुआ : इस रोग में पत्तियां की उपरी सतह पर पीले रंग धब्बे उभर आते हैं।
इन रोगों की रोकथाम के लिये रोगरोधी किस्में लगायें तथा उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करें, फसल
की सामयिक बोनी करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर जिंक मेंगनीज कार्बामेट 800 ग्राम या जिनेव 1 किलो ग्राम पति एकड़ 400 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। कड़वा रोग - यह बीज जनित रोग है। रोगी पौधों में बलियां कुछ पहले निकल आती हैं। इन बालियों में दानों के स्थान पर कहै, जो हवा केझोंके के साथ एक पौधे से दूसरे पौधों तक पहुंच जाता है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिये। रोगरोधी किस्मों काोला चूर्ण भरजाता ही लगाना चाहिये। बोनी के पहले बीज को बीटावेक्स कार्बोक्सिन 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
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ब. कीट
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गेंहू की फसल में दीमक, जडमाहो, भूरी मकड़ी आदि कीटो का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण हेतु
एकीकृत कीट प्रबंधन विधि अपनाये। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एकीकृत कीट प्रबंधन
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कटाई एवं गहाई
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चना की कृषि कार्यमाला --
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भूमि का चुनाव एवं तैयारी -
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चने की खेती क्षारीय भूमि के अतिरिक्त सभी प्रकार की मध्यम से भारी भूमि भूमि में की जा सकती है। खरीफ फसल कटाई उपरान्त हल या ट्रेक्टर से जुताई कर बखरनी की जावे । यदि ढेले बहुत बड़े हो तो पटेला चलावें । यदि ढ़ेले बहुत बड़े हों तो पलेवा कर खेत तैयार करें ।
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बोने का समय -
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चने की बोआई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर है। देरी से बोनी की स्थिति में दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक भी बोनी की जा सकती है। देरी से बोनी करने के लिए कम अवधि की किस्मों का चयन आवश्यक होगा।
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चने की उत्तम जातियाँ :-
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बीज की मात्रा एवं बुवाई की विधि-
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बीज स्वस्थ एवं अच्छी अंकुरण क्षमता का हो। चना फसल बोने के लिए 30 किलो बीज प्रति एकड़ लगता है । देरी से बोने एवं दानों का आकार बड़ा होने पर 40 किलो तक बोया जा सकता है। चने में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए ।
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बीजोपचार :-
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बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु बीजोपचार आवश्यक हैं बोनी के पूर्व 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा बिरडी प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम पी.एस.बी. कल्चर से बीजोपचार करवाना चाहिए । ट्राइकोडरमा बिरडी न मिलने पर 3 ग्राम थीरम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में कल्चर एवं पी.एस.बी. से बीजोपचार करना चाहिए ।
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जैविक खाद एवं उर्वरक -
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चने की फसल में असिंचित दशा में 1.50 टन नाड़ेप खाद एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. या 2 टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. देने से अच्छी उपज मिलती है। सिंचिंत फसल में 2 टन नाडेप खाद एवं 1.20 किलो पी.एस.बी. कल्चर या 1-2टन वर्मी कल्चर एवं 1.2 किलोग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति एकड़ देने से अच्छी उपज मिलती है।
2 टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. तथा 20 किलो डी.ए.पी. प्रति एकड़ देने से भी चना का भरपूर उत्पादन मिलता है । नाडेप एवं वर्मीकम्पोस्ट के साथ 20 किलो डी.ए.पी. से भी भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचाई :-
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चने की फसल में दो सिंचाई लगती है, पहली 45 दिन में फल आने पर तथा दूसरी 75 दिन बाद फल बनने पर करना चाहिए । यदि सिंचाई उपलब्ध है तो फूल आने के पहले 40 - 45 दिन में सिंचाई करनी चाहिए।
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कीट नियंत्रण :-
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चने की फसल में चने की इल्ली का प्रकोप ही अधिक होता है । इसका पहले जैविक नियंत्रण करना चाहिए । यदि जैविक नियंत्रण से कंट्रोल न हो तो फिर रासायनिक कीट नाशकों का उपयोग करना चाहिए।
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जैविक कीट नियंत्रण :-
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चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
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रोग एवं नियंत्रण :-
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चना फसल में जड तथा तने में निम्न रोग लगते है:-
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नियंत्रण :-
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चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
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भण्डारण :-
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चना को अच्छी तरह सुखाकर फिर छाया में ठंडा कर सफाई कर एवं नीम की पत्ती या मेलाकिया 0.05% का स्प्रे भण्डार गृह या बोरां में करें । कीडे का प्रकोप होने पर ई.डी.बी. एम्पूल्स 3 एम.एल. प्रति क्विटल के हिसाब से डाले ।
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