सोयाबीन की कृषि कार्यमाला
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
सोयाबीन की खेती अधिक हल्कीहल्की व रेतीली भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परंतु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिये अधिक उपयुक्त होती है। जिन खेतों में पानी रुकता होउनमें सोयाबीन न लें।ग्रीष्मकालीन जुताई वर्ष में कम से कम एक बार अवष्य करनी चाहिये। वर्षा प्रारम्भ होने पर या बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत का तैयार कर लेना चाहिये। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थायें नष्ट होंगीं। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिये उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: अधिक उत्पादन के लिये खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है। जहां तक सम्भव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सकें। यथा सम्भव मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) बनाकर सोयाबीन बोयें।
उन्नत प्रजातियां -
प्रजाति
पकने की अवधि 
औसत उपज (क्विंटल/हेक्टर)
प्रतिष्ठा
100-105 दिन
20-30
जे.एस. 335
95-100 दिन
25-30
पी.के. 1024
110-120 दिन
30-35
एम.ए.यू.एस. 47
85-90 दिन
20-25
एनआरसी 7
(अहिल्या-3)
100-105 दिन
25-30
एनआरसी 37
95-100 दिन
30-35
एम.ए.यू.एस.-81
93-96 दिन
22-30
एम.ए.यू.एस.-93 15
90-95 दिन
20-25

बीज दर -
छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़
मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़
बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़
बीजोपचार-
सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2ग्रामकार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा ग्राम / कार्बेन्डाजिम ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोयें।
कल्चर का उपयोग-
फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार के प्श्चात् बीज को ग्राम रायजोबियम एवं ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिये एवं शीघ्र बोनी करना चाहिये। घ्यान रहे कि फफूंद नाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलाऐं।
बोनी का समय एवं तरीका-
जून के अंतिम सप्ताह में जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्त नमी होना चाहिये। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात् बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) तथा 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये। 20कतारों के बाद एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण के लिये खाली छोड़ देना चाहिये। बीज 2.50 से से.मी. गहरा बोयें।
अंतरवर्तीय फसलें -
सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के रुप में अरहर  सोयाबीन (2:4), ज्वार  सोयाबीन (2:2), मक्का  सोयाबीन (2:2), तिल  सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें उपयुक्त हैं।
समन्वित पोषण प्रबंधन -
अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) टन प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बोते समय किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर किलो पोटाश एवं किलो गंधक प्रति एकड़ देवें। यह मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर घटाई बढ़ाई जा सकती है। यथा सम्भव नाडेपफास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग से से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मिट्टियों में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से से फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन -
फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को नश्ट करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ आखरी बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को भलीभाँति बखर चलाकर मिला देवें। बोने के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर पानी में घोलकर फ्लैटफेन या फ्लैटजेट नोजल की सहायता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के स्थान पर 8किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बोने के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों के लिये मिट्टी में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना चाहिये।
सिंचाई -
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्यत: सोयाबीन को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात् सितम्बर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्पादन लेने हेतु लाभदायक है।
पौध संरक्षण -  अ. कीट -
सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियांतने को नुकसान पहुंचाने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकोप होता हैएवं कीटों के आक्रमण सेसे 50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। इन कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्नलिखित हैं:
कृषिगत नियंत्रण - 
खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। मानसून की वर्षा के पूर्व बोनी नहीं करें। मानसून आगमन के पश्चात् बोनी शीघ्रता से पूरी करें। खेत नींदा रहित रखें। सोयाबीन के साथ ज्वार अथवा मक्का की अंतरवर्तीय फसल लें। खेतों को फसल अवशेषों से मुक्त रखें तथा मेढ़ों की सफाई रखें।
रासायनिक नियंत्रण -
बोवाई के समय थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से प्रारम्भिक कीटों का नियंत्रण होता है अथवा अंकुरण के प्रारम्भ होते ही नीला भृंग कीट नियंत्रण के लिये क्यूनालफॉस 1.5प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल प्रतिशत या धानुडाल प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करना चाहिये। कई प्रकार की इल्लियां पत्तीछोटी फलियों और फलों को खाकर नष्ट कर देती है। इन कीटों के नियंत्रण के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिये। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला भाग चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों और फलियों को खा जाती हैजिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती। चूँकि फसल पर तना मक्खीचक्रभृंगमाहो हरी इल्ली लगभग एक साथ आक्रमण करते हैंअत: प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45दिन का फसल पर अवश्य करना चाहिये।
क्रं
प्रयुक्त कीटनाशक
मात्रा प्रति एकड़
क्रं
प्रयुक्त कीटनाशक
मात्रा प्रति एकड
1
क्लोरोपायरीफॉस20 ई.सी.
600 मिली
5
ईथोफेनप्राक्स 40ई.सी.
400 मिली
2
क्यूनालफॉस 25ई.सी.
600 मिली
6
मिथोमिल 10 ई.सी.
400 मिली 
3
ईथियान 50 ई.सी.
600 मिल
7
नीम बीज का घोल 5प्रतिशत
15 कि.ग्रा.
4
ट्रायजोफॉस 40ई.सी.
320 मिली
8
थयोमिथोक्जाम 25डब्ल्यू जी
40 ग्राम
छिड़काव यंत्र उपलब्ध न होने की स्थिति में निम्नलिखित में से एक पावडर (डस्ट) का उपयोग 8-10 किग्रा प्रति एकड़ करना चाहिये।
  • क्यूनालफॉस - 1.5 प्रतिशत
  • मिथाईल पैराथियान - 2.0 प्रतिशत
जैविक नियंत्रण -
कीटों के आरम्भिक अवस्था में जैविक कीट नियंत्रण हेतु बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिन बाद छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक की जगह जैविक कीटनाशकों को अदला-बदली कर डालना लाभदायक होता है।
  • गर्डल बीटल प्रभावित क्षेत्र में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगावें।
  • निंदाई के समय प्रभावित टहनियां तोड़कर नष्ट कर दें।
  • कटाई के पश्चात् बंडलों को सीधे गहाई स्थल पर ले जावें।
  • तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें।
ब. रोग -
  • फसल बोने के बाद से ही फसल निगरानी करें। यदि सम्भव हो तो लाइट ट्रेप तथा फेरोमेन टूब का उपयोग करें।
  • ब्ीजोपचार आवश्यक है। उसके बाद रोग नियंत्रण के लिये फंफूद के आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु कार्बेंडाजिम ग्राम / ग्राम थीरम के मिश्रण से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करना चाहिये। थीरम के स्थान पर केप्टान एवं कार्बेंडाजिम के स्थान पर थायोफेनेट मिथाइल का प्रयोग किया जा सकता है।
  • पत्तों पर कई तरह के धब्बे वाले फुंद जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिये कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यू.पी. या थायोफेनेट मिथाइल 70 डब्ल्यू.पी. 0.05 से 0.1 प्रतिशत से ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिये। पहला छिड़काव 30-35 दिन की अवस्था पर तथा दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की अवस्था पर करना चाहिये।
  • बैक्टीरियल पश्च्यूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिये स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या कासूगामाइसिन की 200पीपीएम 200 मिग्रा दवा प्रति लीटर पानी के घोल और कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.2 (2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में मिश्रण करना चाहिये। इसके लिये 10 लीटर पानी में ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन एवं 20 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते हैं।
  • गेरुआ प्रभावित क्षेत्रों (जैसे बैतूलछिंदवाड़ासिवनी) में गेरुआ के लिये सहनशील जातियां लगायें तथा रोगों के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्साकोनाजोल ई.सी. या प्रोपिकोनाजोल25 ई.सी. या ऑक्सीकार्बोजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से ट्रायएडिमीफान 25 डब्ल्यूपी दवा के घोल का छिड़काव करें।
  • विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व वड व्लाइट रोग प्राय: एफ्रिडस सफेद मक्खीथ्रिप्स आदि द्वारा फेलते हैं। अत: केवल रोग रहित स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिये एवं रोग फेलाने वाले कीड़ों के लिये थायोमेथेक्जोन 70 डब्ल्यू एस. से ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर एवं 30 दिनों के अंतराल पर दोहराते रहें। रोगी पौधों का खेत से निकाल देवें। इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी., 400 मि.ली. प्रति एकड़,मिथाइल डेमेटान 25 ईसी 300 मिली प्रति एकड़डायमिथोएट 30 ईसी 300 मिली प्रति एकड़,थायोमिथेजेम 25 डब्ल्यू जी 400 ग्राम प्रति एकड़।
  • पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिये ग्राही फसलों (मूंगउड़दबरबटी) की केवल प्रतिरोधी जातियां ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा गर्मी की फसलों में सफेद मक्खी का नियमित नियंत्रण करें।
  • नीम की निम्बोली का अर्क डिफोलियेटर्स के नियंत्रण के लिये कारगर साबित हुआ है।
फसल की कटाई एवं गहाई -
अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियां के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिये। पंजाब पकने के 4-5 दिन बादजे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती है। कटाई के बाद गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना चाहिये। जब कटी फसल अच्छी तरह सूख जाये तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिये। फसल गहाई थ्रेसरट्रेक्टरबैलों तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिये। जहां तक सम्भव हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये,जिससे अंकुरण प्रभावित न हो।
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मक्का की कृषि कार्यमाला
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
मध्यम से भारी भूमि जिसमें जल निकास अच्छा होसबसे उपयुक्त होती है। लवणीयक्षारीय एवं निचली भूमि जहां पानी का भराव होता हो वहां मक्का नही लगाना चाहिये। खेत की एक या दो बार हल से जुताई करें तथा बाद में दो बार बखर चलाकर मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरी बना लेना चाहिये। अंतिम बखरनी के समय प्रतिशत फालीडाल डस्ट से 10किलो प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करना चाहिये ।
मक्का की जातियाँ -
क्षेत्र की उपयुक्ता के अनुसार मक्का की उन्नत जातियों का चुनाव करना चाहिये । मक्का की उन्नत जातियाँ निम्नानुसार है :-
संकर जातियाँ -
  1. गंगा-इसके पौधे मजबूतभुट्टा शंकु आकार का तथा दानों का रंग पीला होता है । यह 105-110 दिनों की अवधि में पककर तैयार हो जाती है । इसकी औसत पैदावार 20 से 26 क्विंटल प्रति एकड़ होती है ।
  2. गंगा सफेद-गंगा सफेद-के दाने सफेद होते है । यह जाति मध्यप्रदेश के पश्चिमी जिलों के लिये उपयुक्त है । यह जाति 105-110 दिनों में पकती है एवं इसकी पैदावार 20 से 26 क्विंटल प्रति एकड़होती है।
  3. डेक्कन 101 इसके पौधे ऊँचेभुट्टे मध्यम आकार के एवं दानों का रंग पीला होता है । यह जाति 110-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । इसकी पैदावार 24 से 26 क्विंटल प्रति एकड़ होती है ।
मक्का की कम्पोजिट जातियाँ (संकुल) -
  1. पूसा कम्पोजिट-1 : यह कम्पोजिट मक्का की जल्दी पकने वाली जाति है जो 80 से 85 दिनों में पक जाती है । इसका दाना चपटा होता है एवं इसकी औसत पैदावार 12-14 क्विंटल प्रति एकड़ होती है ।
  2. पूसा कम्पोजिट-11 : 90-95 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । इसका दाना पीला तथा आकार चपटा होता है । इसका उत्पादन 14 से 16 क्विंटल प्रति एकड़ होता है ।
  3. नवजोत : यह जाति 90-95 दिनों मेें पकती है एवं इसका औसत उत्पादन 14-16 क्विंटल प्रति एकड़ होता है । इसके भुट्टे मध्यम आकार के तथा दानों का रंग नारंगी होता है । इसके दाने चपटे आकार के होते हैं । देशी किस्मों की तुलना में यह अधिक बीमारी रोधक जाति है ।
  4. चंदन मक्का-3 : इसके पौधे मजबूत एवं इसकी पत्तियों का रंग काला होता है । यह 100-105 दिनों में पक जाती है।
  5. इसमें ज्यादातर पौधों में दो भुट्टे लगते हैं एवं इसकी पैदावार औसतन 24 से 26 क्विंटल प्रति एकड़ होती है ।
सूर्या एवं जवाहर मक्का -
ये जातियाँ 90-95 दिनों में पककर तैयार हो जाती है एवं इनकी औसत उपज 14-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है । इनका दाना पीला एवं आकार में कुछ चपटा होता है ।
बीज -
मक्का का बीज छोटे या बड़े दानों के आकार के अनुसार लगता है जो प्राय: से किलो प्रति एकड़ की दर से बोया जाता है ।
बोने का समय एवं तरीका -
मक्का की फसल वर्षा होने पर बोई जाती है । यदि कृषकों के पास सिंचाई का साधन हो तो 10-15 दिन पूर्व में बोआई करने से इसकी अधिक पैदावार मिलती है । बुआई में कतार से कतार की दूरी 75 से.मी. (2 1/2 फीट) एवं पौधों से पौधों की दूरी 20 से.मी. ( 8'') रखनी चाहिये । मक्का का बीज से से.मी. गहराई पर बोने से अंकुरण होता है । इसे अधिक गहरा नहीं बोना चाहिये क्योंकि फिर मक्का के बीज का अंकुरण कम होता है ।
जैविक खाद -
मक्का की फसल में शीघ्र पकने वाली जातियों में नाडेप कम्पोस्ट से टन या वर्मी कम्पोस्ट 3.5-4 टन प्रति एकड़ तथा देर से पकने वाली जातियों में 8-10 टन नाडेप कम्पोस्ट या से 5.25 टन वर्मी कम्पोस्ट प्रति एकड़ देने से मक्का का भरपूर उत्पादन मिलता है । इसके साथ ही पी.एस.बी. कल्चर 800 किलोग्राम प्रति एकड़ डालना चाहिये जिससे फसल को अघुलनशील फास्फोरस उपलब्ध हो सके ।
अमृत भभूत पानीअमृत संजीवनी एवं मटका खाद का से बार उपयोग करने से मक्का की फसल अच्छी होती है ।
रासायनिक खाद -
मक्का में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग वैसे तो मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिये किन्तु सामान्यत: संकर जातियों के लिये 48 नत्रजन 20 स्फुर तथा 16 किलो पोटाश प्रति एकड़ तथा देर से पकने वाली जातियों के लिये 40 नत्रजन, 16स्फुर तथा 12 किलो पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिये।

भारी भूमि में नत्रजन की1/3 मात्रा बोआई के समय एवं शेष2/3 मात्रा लगभग एक माह की फसल होने पर देना चाहिये । फास्फोरस एवं पोटाश की पूर्ण मात्रा बुआई के समय या पूर्व में देना चाहिये । हल्की भूमि में शेष2/3 मात्रा दो बार जब पौधों 60 से.मी. हो या 30 दिन के एवं मांझर निकलते समय देना चाहिये।

यदि मिट्टी परीक्षण के आधार पर भूमि में जिंक की कमी पाई जावे तो भारी भूमि में 20 किलो तथा हल्की भूमि में 10 किलो प्रति एकड़ की दर से जुताई से पूर्व जिंक सल्फेट डालना चाहिये ।
निदाई गुड़ाई -
मक्का की फसल के बुआई के तुरन्त बाद या अंकुरण होने के पूर्व भूमि में नमी होने पर टेफजीन 600 ग्राम या एट्राजीन400 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिये । इससे प्रमुख नींदाओं का नियंत्रण होगा ।

बोनी के 15-20 दिन बाद कतारों के बीच में डोरा चलाते है जिससे निंदाई एवं गुडाई दोनों ही होते है । बोनी के 30 दिनों बाद जब पौधे 60 से.मी. ऊँचे हो तब मिट्टी चढ़ना चाहिये । मांझर निकलते समय यदि वर्षा न हो एवं सिंचाई करने की सुविधा हो तोइस समय कृषकों को पानी देना चाहिये ।
खेत में पानी का निकास अवश्य होना चाहिये क्योंकि एक ही स्थान पर पानी जमा होने से फसल की बढ़वार रूकती है एवं पैदावार में कमी आती है । अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मक्का की बोआई मेंढ़ों पर करना चाहिये ।
पौध संरक्षण 
जैविक कीट नियंत्रण : 
मक्का की फसल में तनाछेदक इल्लीकम्बल कीड़ाआर्मीवर्मग्रास होपरजेसिड एवं एफिडस आदि का नियंत्रण जैविक कीट नियंत्रण द्वारा सफलपूर्वक निम्नानुसार तरीकों से किया जा सकता है -
  • हेलिकोवर्पा एन.पी.व्ही. 100 एल.ई (इल्ली समतुल्य) घोल का प्रति एकड़ छिड़काव करें।
  •  तना छेदक हेतु ट्राइकोग्रामा चिलोनिस के 30000 हजार अण्डे प्रति एकड़ प्रति सप्ताह की दर से फसल में छोड़ें।
  • एपेन्टालिसट्रायकोग्रामालेडी बर्ड बीटलएवं मकड़ी इत्यादि मित्र कीटों का संरक्षण करें।
रासायनिक कीट नियंत्रण :
  (1) व्हाइट ग्रब : इसकी इल्लियाँ पौधे की जड़ों को काटती है ।
रोकथाम
थायोडान डस्ट 4% या फालीडाल डस्ट 2% या कार्बोरिल 10% डस्ट का से 10 किलो प्रति एकड़ की दर से जुताई के पूर्व बुरकाव करफिर जुताई करें।
 (2) तनाछेदक इल्ली : इसकी इल्लियाँ कोमल पत्तों को खाकर तने में घुस जाती है जिससे पौधों के बीच का भाग सूख जाता है एवं डेड हार्ट बन जाता है ।
रोकथाम 
इसकी रोकथाम के लिये डेमेक्रान 35 ई.सी. 80 मि.ली. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें या थायोडान दानेदार दवा किलो प्रति एकड या कार्बोफ्यूरॉन जी 4-6 दाने प्रति पोंगली के हिसाब से पौधों की पाेंगलियों में डालें।

इसके अलावा कम्बल कीड़ाग्रास होपरआर्मीवार्मजेसिडएफिडस आदि का नियंत्रण नुवाक्रान 36 ई.सी. 200मि.ली. या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 400 मि.ली को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें ।
या
डस्ट में थायोडान डस्ट 4% या फालीडाल डस्ट 2% या इकालक्स डस्ट 1.5% को किलो प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें ।
बीमारियाँ :
लीफ स्पाट : इस बीमारी में लम्बेगहरे-भूरे रंग के धब्बे होते हैं । इन धब्बों के ज्यादा होने पर पत्तियाँ सूख जाती हैं ।
रोकथाम :
इसकी रोकथाम के लिये डाइथेन जेड़-78 की 280 से 320 ग्राम मात्रा पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें ।
फसल कटाई एवं गहाई :
जब भुट्टे अच्छी तरह पककर सूख जावें तो फसल काट लेना चाहिये । भुट्टों के ऊपर के पत्ते हाथ से निकालते हैं एवं बाद में भुट्टों के दाने मेज शेलर या हंसिया से निकालते हैं । जब दानों में 10 से 12% आर्द्रता रहे तब इसका भण्डारण करना चाहिये । दानों का भण्डारण करने के पूर्व बोरों पर 0.05% मेलाथियान का घोल छिड़काव करें एवं अच्छी तरह बोरों को सुखाने के बाद ही उनमें दानों का भण्डारण करें । बण्डों में भी 0.05% का मेलाथियान का घोल बनाकर छिडकें एवं सूखने पर भण्डारण करें । जैविक रूप से भण्डारण में नीम की पत्तियाँ मिलाकर रख सकते हैं।
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गेंहू की कृषि कार्यमाला (संक्षिप्त)

भूमि का चुनाव एवं तैयारी - 
गेंहू की खेती उचित जल प्रबंध के साथ सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। विपुल उत्पादन के लिये गहरी एवं मध्यम दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त है।
असिंचित क्षेत्र  
वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में छोटे-छोटे कन्टूर बना कर भूमि के कटाव और प्रत्येक जल को रोका जाना चाहिये। गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें। नमी संरक्षण हेतु प्रत्येक वर्षा के बाद बतर आने पर समय-समय पर खेत की जुताई करते रहें तथा वर्षा समाप्त होने पर प्रत्येक जुताई के बाद अवष्य लगायें।
सिंचित क्षेत्र  
खरीफ फसल काटने के तुरंत बाद ही जमीन की परिस्थिति के अनुसा जुताई करें। यदि खेत कड़ा हो और जुताई सम्भव न हो तब सिंचाई देकर जुताई करें। दो या तीन बार बखर या हल चलाकर जमीन भुरभुरी करेंअंत में पाटा चलाकर भूमि समतल बनायें।
बुवाई का समय
बुवाई का समय - सिंचाई की व्यवस्था के आधार पर निम्नानुसार बोनी करे-
  1. असिंचित गेंहू-15 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक, 2. अर्धसिंचित गेंहू 15 अक्टूबर से 10 नवंबर तक, 3. सिंचित गेंहू (समय से) 10नवंबर से 25 नवम्बर तक, 4. सिंचित गेंहू (देरी से) 05 दिसम्बर से 20 दिसम्बर तक।
बीज की मात्रा   
सिंचित एवं असिंचित किस्मों के लिये 40 किलोअसिंचित देर से बोई जाने वाली किस्मों के लिये 48 किलो प्रति एकड़ बीज दर रखी जाती है।बीज की मात्रा का निर्धारण दानों के वजन एवं अंकुरण क्षमता पर निर्भर करता है। सामान्यत: 38 ग्राम प्रति एक हजार बीज के वजन वाली किस्मों का बीज 40 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से बोयें। देरी से बोनी की स्थिति में बीज दर में 20-25 प्रतिशत बढ़ोतरी करके बोनी करें। अंकुरण कम होने की दशा में बीज दर आवष्यकता अनुसार निर्धारण कर बोनी करें। 
बीजोपचार 
दीमक के नियंत्रण हेतु बीज को कीटनाशक दवा क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. 400 मि.ली. लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति क्विंटल बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। इसके पष्चात् कार्बोक्सिन (विटावेक्स 75 डब्ल्यू.पी.) या बेनोमिल (बेनलेट 50 डब्ल्यू.पी.) 1.5-2.5 या थाइरम 2.5 - 3 ग्राम दवा ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई पूर्व बीज को एजेटोबेक्टर 5-10ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 10-20 ग्राम प्रति किलो ग्राम के हिसाब से उपचारित करें। 
बुवाई का तरीका  
असिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. अर्धसिंचित अवस्था में कतार की दूरी 23-25 से.मी. तथा सिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 20 -23 से.मी. रखें। पिछेती बोनी की अवस्था में कतार से कतार की दूरी 15-18 से.मी. रखना चाहिये। बीज की बुवाई3 -4 से.मी. गहराई पर करें। शुष्क बुवाई की स्थिति में उथली बोनी अंकुरण के लिये लाभप्रद होती है। 
उन्नत किस्में -- 
क्र कृषि पारिस्थितिकी पिसी किस्में कठिया किस्में अवधि दिनों में Æ उपज क्विं प्रति एकड़
1 असिंचित/अर्धसिंचित जे.डब्ल्यू.एस. - 17, सुजाता एच.डब्ल्यू. 2004 एच.आई. 1500 एम.पी. 3020, सी 306 एच.डी. 4672 अमर, एच.आई. 8627 135-140 6-8
2 सिंचित समय पर बोनी हेतु एम.पी. 142, एच.आई. 1077, जी.डब्ल्यू 273, जी.डब्ल्यू 322, जी.डब्ल्यू 190 राज 1555, एच.डी. 4530, एच.आई. 8498, एच.आई 8381, जे.डब्ल्यू 1106 सुधा 115-12516-20
3 सिंचित देरी से बोनी हेतुडी.एल. 788-2, लोक- 1, जी.डब्ल्यू 173, एम.पी. 4010, एच.डी. 2864 - 95-11015-16
खाद उर्वरक की मात्रा  
  अ. असिंचिम अवस्था 
आधार खाद के रुप में 16 किलो ग्राम नत्रजन, 8 किलोग्राम स्फुर प्रति एकड़ बुवाई के समय दुफन या नारी के अगले पोर से देना चाहिये। मिट्टी परीक्षण में यदि पोटाश की मात्रा कम पाई जाती है तो किलो ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के समय देना चाहिये। खाद को बीज से 2-3 से.मी. नीचे डालना चाहिये। 
  ब. अर्धसिंचित अवस्था
नत्रजन 24 किलोग्रामस्फुर 16 किलोग्राम तथा किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिये। स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी बोनी के समय आधार रुप मेंशेष आधी 12 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ प्रथम सिंचाई पर दें।
  स. सिंचित अवस्था  
सिंचित अवस्था - सिंचित अवस्था मेें नत्रजन 40-48 किलोग्रामस्फुर 24 किलो ग्राम तथा पोटाश 12 किलोग्राम प्रति एकड़ देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन आधार रुप में 1/2 तथा पूरी मात्रा में स्फुर व पोटाश देना चाहिये। शेष 1/2 नत्रजन में से 1/4 प्रथम सिंचाई 20-21पर तथा 1/4 दूसरी सिंचाई 40-45 दिनों पर देना चाहिये। जिन खेतों में मिट्टी परीक्षण जस्ते की कमी पाई जाती है वहां 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ बुवाई के पहले खेत में आधार खाद के रुप में देना चाहिये। यदि खेतों में सतत् गेंहू की खेती की जा रही है तो वर्ष में एक बार 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से जिंक सल्फेट डालना चाहिये।
सिंचाई प्रबंधन
सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर गेंहू की विभिन्न अवस्थाओं पर निम्न तालिका के अनुसार सिंचाई करें-
सिंचाई
शीर्ष जड़ अवस्था
कल्ले बनने की अवस्था 
गभोट की अवस्था
फूल बनने की अवस्था
दूध अवस्था
दाने भरने की अवस्था
18-21 दिन
40-42 दिन
55-60 दिन
65-70दिन
80-85 दिन
100-105 दिन
एकसिंचाई
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दो सिंचाई
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x
तीन सिंचाई
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चार सिंचाई
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x
पांच सिंचाई
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छ: सिंचाई
खरपतवार प्रबंधन  
अ. चौड़ी पत्ति वाले खरपतवार
इनके नियंत्रण के लिये 2-4, डी- सोडियम साल्ट 200 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर 200 लीटर पानी में घोल बनाकर 25-30 दिन बाद छिड़काव करें। दवा का 40 दिन बाद छिड़काव फसल के लिये हानिप्रद होता है। गेंहू के साथ चनामसूरमटर की फसल होने पर इस दवा का प्रयोग न करें। 
ब. सकरी पत्ती वाले खरपतवार 
संकरी पत्ती वाले खरपतवार में जंगली जईचिरैया बाजरा की समस्या पाई गई है। इससे बीज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिन खेतों में खरपतवार दिखाई दे उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर दें। यदि खेत में नींदा बहुत अधिक है तो फसल चक्र अपनायें। ऐसी स्थिति में बरसीम या रिजका की फसल लेना लाभप्रद है क्योंकि चारे की कटाई के साथ ये खरपतवार कट कर नष्ट हो जाते हैं। रासायनिक नियंत्रण हेतु-

  •  मेटाक्सुरान (डोसानेक्स) 400-600 ग्राम सक्रिय तत्व या पेन्डीमिथलीन 400 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर से बोनी के तुरंत बाद तथा अंकुरण के पहले 250 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
  • आइसोप्रोटूरान 300 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ 250 लीटर पानी में घोल बनाकर बोनी के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें। इसके प्रयोग से दोनों ही प्रकार के खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते हैं।
  • खेत में दोनों प्रकार के नींदा है तो आइसोप्रोटूरान 300 ग्राम सक्रिय तत्व तथा 2-4, डी 200 ग्राम सक्रिय तत्व का मिश्रण प्रति एकड़ की दर से उपरोक्त बताई विधि अनुसार उपयोग करें। इस मिश्रणों के प्रयोग से चिरैयाबाजराजंगली जई एवं अन्य खरपतवारों को प्रभावी रुप से नियंत्रित किया जा सकता है।
  • नींदा नाशक दवा का छिड़काव प्रथम सिंचाई के एक सप्ताह बाद करें। छिड़काव के समय मिट्टी में नमी का होना अति आवष्यक है।
पौध संरक्षण-  
अ. रोग
गेंहू की उपज पर रोग के प्रकोप से उपज में काफी प्रभाव होता है। केवल गेरुआ रोग से ही गेंहू की उपज में लगभग 12 प्रतिशत की हानि होती है।

अ. भूरा अवस्था : गेंहू की पत्तियां पर नारंगी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है जो गोल होते हैं
ब. काला गेरुआ : इसका प्रकोप अधिकतर तने पर आता है।
स. पीला गेरुआ : इस रोग में पत्तियां की उपरी सतह पर पीले रंग धब्बे उभर आते हैं।
इन रोगों की रोकथाम के लिये रोगरोधी किस्में लगायें तथा उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करेंफसल की सामयिक बोनी करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर जिंक मेंगनीज कार्बामेट 800 ग्राम या जिनेव किलो ग्राम पति एकड़ 400 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें।
कड़वा रोग - यह बीज जनित रोग है। रोगी पौधों में बलियां कुछ पहले निकल आती हैं। इन बालियों में दानों के स्थान पर कहैजो हवा केझोंके के साथ एक पौधे से दूसरे पौधों तक पहुंच जाता है। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिये। रोगरोधी किस्मों काोला चूर्ण भरजाता ही लगाना चाहिये। बोनी के पहले बीज को बीटावेक्स कार्बोक्सिन 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
  • कर्नलबंट - इस रोग का प्रभाव पर होता है। दानों में काले रंग का पावडर बन जाता है। यह रोग बीज द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम के लियेजिस खेत में रोग लगा हो उस खेत में 2-3 वर्ष तक गेंहू नहीं बोना चाहिये। बोने से पहले बीज को थायरम 2.5ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज केदर से उपचारित करें। फूलने की अवस्था में सिंचाई न करें।
  • पर्ण ब्लास्ट - पत्तियां किनारों से सूखना प्रारम्भ करती है। आरम्भ में पत्तियो में अंडाकर सूखे धब्बे दिखाई देते हैंबाद में यह टूटकर पूरी पत्तियाें में फैल जाते है। नियंत्रण हेतु डायथेन (एम-45 0.25 प्रतिशत) के घोल का छिड़काव फसल पर करें।
ब. कीट 
गेंहू की फसल में दीमकजडमाहोभूरी मकड़ी आदि कीटो का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण हेतु एकीकृत कीट प्रबंधन विधि अपनाये।
एकीकृत कीट प्रबंधन
  • खेत की अच्छी तरह जुलाई करना चाहिये।  
  • कच्ची व अधपकी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि इसके प्रयोग से दीमक के प्रकोप की सम्भावना अधिक होती है।
  • खेत के आसपास मेढ़ो में यदि दीमक का बमीठा हो तो उसे गहरा खोदकर नष्ट कर देना चाहिये। 
  •  गेंहू की बुवाई समय पर तथा बीज उपचारित करें। यदि दीमक के प्रकोप की सम्भावना है तब बीज को क्लोरोपायरीफास 20ई.सी. 400 मि.ली. लीटर पानी में घोलकर 100 किलोग्राम बीज का उपचारित करें। देरी से बोये गये (दिसम्बर-जनवरी) गेंहू पर जड़ माहो का प्रकोप अधिक होता है। अत: समय पर बोनी करें।
  • खड़ी फसल पर दीमक या जडमाहो का प्रकोप होने पर क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. 500 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से दवा को सिंचाई जल के साथ दें। अर्धसिंचित भूमि में उपरोक्त दवा की मात्रा लीटर पानी में घोलकर 50 किलोग्राम रेत में मिलाकर खेत में फैलाकर पानी लगावें।
  • अर्धसिंचित फसल में नवम्बर-दिसम्बर माह में कल्ला छेदक भृंग नियंत्रण के लिये मेलाथियान 200 मि.ली. या मिथाइल डेमेटान250 मि.ली. दवा का 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। इससे जेसिड का भी नियंत्रण हो जाता है। 
  • भूरी मकड़ी का प्रकोप असिंचित गेंहू पर होता है। नियंत्रण के लिये फारमोथियान 25 ई.सी. का 260 मि.ली. प्रति एकड़ या मिथाइल डेमेटान का 260 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद दवा का पुन: छिड़काव करें।
कटाई एवं गहाई

  • पकी फसल की कटाई जल्दी करना चाहियेक्योंकि आग एवं ओला से कभी-कभी पकी फसल को बहुत नुकसान होता है। अधिक पकी फसल काटने से बालियां टूटती है और दाने झड़ते है। फसल की कटाई सुबह और शाम के समय करना चाहिये,इससे दाने कम झड़ेंगे। कटाई तेज धार वाले हंसिया से करना चाहिये। काटी गई फसल को तुरंत बोझों में बाँध लेना चाहिये,क्योंकि कटाई के समय तेज हवा चलने से कटी हुई फसल उड़ कर खराब हो जाती है। काटी गई फसल के बोझों को बैलगाड़ी या ट्रेक्टर ट्राली से ढुलाई करके खलिहान से इकट्ठा करना चाहिये। खलिहान में थ्रेसर या बैलों से गहाई करना चाहिये। इसके बाद उड़वानी द्वारा दाना अलग करके धूप में सुखाकर भंडारित करना चाहिये। खलिहान में आग और चूहों से बचाव करना चाहिये।
औसत उपज - सिंचित दशा में : 16-20 क्विंटल प्रति एकड़
बारानी दशा में : 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ं
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चना की कृषि कार्यमाला -- 
भूमि का चुनाव एवं तैयारी - 
चने की खेती क्षारीय भूमि के अतिरिक्त सभी प्रकार की मध्यम से भारी भूमि भूमि में की जा सकती है। खरीफ फसल कटाई उपरान्त हल या ट्रेक्टर से जुताई कर बखरनी की जावे । यदि ढेले बहुत बड़े हो तो पटेला चलावें । यदि ढ़ेले बहुत बड़े हों तो पलेवा कर खेत तैयार करें ।
बोने का समय - 
चने की बोआई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर है। देरी से बोनी की स्थिति में दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक भी बोनी की जा सकती है। देरी से बोनी करने के लिए कम अवधि की किस्मों का चयन आवश्यक होगा। 
चने की उत्तम जातियाँ :- 
किस्म
पकने की अवधि
औसत पैदावार क्वि/हेक्टर
विशेषताऐं
जवाहर चना 74
110 - 120
15 - 18
उकटा अवरोधीदेर से बुवाई के लिये उपयुक्त
भारती (आई.सी.सी.व्ही.10)
110 - 120
12 - 15
उकटा अवरोधी
जवाहर चना 218
115 - 120 
15 - 20
उकटा अवरोधी
विजय 
115 - 120
12 - 15 
उकटा अवरोधी
जवाहर चना 322
115 - 125
15 - 20
बड़ा दाना उकटा निरोधी तथा स्टंट विषाणु अवरोधी
जवाहर चना 11
115
15 - 20
बड़ा दाना उकटा निरोधीशुष्क मूल विगलन सहनषील सूखा व चने की इल्ली के प्रति सहनषील
जवाहर चना 130
97-105
15 - 20
उकटा निरोधीस्तम्भ मूल विगलनबीजीएम तथा स्टंट हेतु मध्यम अवरोधी
जवाहर चना 16
110
15 - 20
उकटा अवरोधी
जवाहर चना 315
115
15 - 20
उकटा अवरोधी
बी.जी.डी. 72
115-120
6 - 7 
उकटा अवरोधी
जाकी-9218 101
93-125
18
उकटा अवरोधी
गुलाबी 



जवाहर गुलाबी चना 1
120-125
6 - 7
भूनने के लिये उपयुक्त
काबुली


उकटा अवरोधीकाबुली
काक 2
110-150
6 - 7
उकटा अवरोधी
जे.जी.के. 1
110-150
6 - 7
उकटा अवरोधी
बी.जी. -1053
120-125
20
उकटा अवरोधी,
बीज की मात्रा एवं बुवाई की विधि-  
बीज स्वस्थ एवं अच्छी अंकुरण क्षमता का हो। चना फसल बोने के लिए 30 किलो बीज प्रति एकड़ लगता है । देरी से बोने एवं दानों का आकार बड़ा होने पर 40 किलो तक बोया जा सकता है। चने में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए ।  
बीजोपचार :-  
बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु बीजोपचार आवश्यक हैं बोनी के पूर्व ग्राम ट्राइकोडर्मा बिरडी प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में ग्राम राइजोबियम कल्चर ग्राम पी.एस.बी. कल्चर से बीजोपचार करवाना चाहिए । ट्राइकोडरमा बिरडी न मिलने पर ग्राम थीरम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में कल्चर एवं पी.एस.बी. से बीजोपचार करना चाहिए ।
जैविक खाद एवं उर्वरक -
चने की फसल में असिंचित दशा में 1.50 टन नाड़ेप खाद एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. या टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. देने से अच्छी उपज मिलती है। सिंचिंत फसल में टन नाडेप खाद एवं 1.20 किलो पी.एस.बी. कल्चर या 1-2टन वर्मी कल्चर एवं 1.2 किलोग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति एकड़ देने से अच्छी उपज मिलती है।
टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. तथा 20 किलो डी.ए.पी. प्रति एकड़ देने से भी चना का भरपूर उत्पादन मिलता है । नाडेप एवं वर्मीकम्पोस्ट के साथ 20 किलो डी.ए.पी. से भी भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है।
सिंचाई :- 
चने की फसल में दो सिंचाई लगती हैपहली 45 दिन में फल आने पर तथा दूसरी 75 दिन बाद फल बनने पर करना चाहिए । यदि सिंचाई उपलब्ध है तो फूल आने के पहले 40 - 45 दिन में सिंचाई करनी चाहिए।
कीट नियंत्रण :- 
चने की फसल में चने की इल्ली का प्रकोप ही अधिक होता है । इसका पहले जैविक नियंत्रण करना चाहिए । यदि जैविक नियंत्रण से कंट्रोल न हो तो फिर रासायनिक कीट नाशकों का उपयोग करना चाहिए। 
 जैविक कीट नियंत्रण :- 
चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
  • फेरोमेन ड्रेप एक एकड़ में लगाकर ।
  • प्रकाश प्रपंच द्वारा ।
  • नीम बीज सत प्रतिशत का उपयोग कर ।
  • टी आकार के प्रति एकड़ 20 पक्षी ठिकान लगाकर।
  • परजीवी रोगाणु ट्राइकोग्रामाटिलोनोमम कोटिडीया आदि का उपयोग भी किया जा सकता है ।
  • श्यामातुलसी एवं गेंदा के पौधे फसल के बीच में लगाने से इल्ली नहीं लगती ।
     
क्र0
कीटनाशक
मात्रा प्रति एकड़
1
इण्डोसल्फान (थायोडानइण्डोसेल)35. ई.सी. 
500 मि.ली.
2
प्रोफेनोफॉस (क्युराक्रान) 50 ई.सी
600 मि.ली.
3
क्विनालाफज्ञस (इकालक्स) 25 ई.सी.
500 मि.ली.
प्रोफेनोफास / सायपरमेथ्रिन
500 मि.ली.
5
ट्रायजोफास / डेल्टामेथ्रिन 36 ई.सी.
600 मि.ली.
6
मिथोमिल ( डुनेट 40 एस.वी / लैेनेट 40 एस.पी) 
400 मि.ली.
क्विनालफास / सायपरमेथ्रिन 25 ई.सी. 
500 मि.ली./ 60मि.ली.
8
 क्विनालफॉस 1.5 : चूर्ण
कि.ग्रा
9
इन्डोसल्फज्ञन 4 : चूर्ण
कि.ग्रा
10
पैराथियॉन 2 : चूर्ण
 8 कि.ग्रा
  रोग एवं नियंत्रण :-
 चना फसल में जड तथा तने में निम्न रोग लगते है:-
  • उकटा रोग।
  • स्तरल मूल संधि विगलन रोग ।
  • शुष्क मूल विगलन रोग ।
  • अल्टरनेरिया झुलसा रोग ।
  • एस्कोकाइटा झुलसा रोग ।
  नियंत्रण :-  
चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
  • रोगी पौधों को निकाल कर जला दें।
  • इस रोग से ग्रसित बीजों को काम में न लें ।
  • चने के साथ गेंहूंराई या गेंहू अंतरवर्तीय फसलों को बोये।
  • फसल को अधिक बडवार से बचायें ।
  • रोग का प्रकोप होने पर डायथेन एम. 45 का 0.3% घोल का छिडकाव करें
  • äÆसकोकाइटा रोग का प्रकोप होने पर क्लोरोथायोनिक कवक 0.2% कवक का छिड़काव करें 
भण्डारण :- 
चना को अच्छी तरह सुखाकर फिर छाया में ठंडा कर सफाई कर एवं नीम की पत्ती या मेलाकिया 0.05% का स्प्रे भण्डार गृह या बोरां में करें । कीडे का प्रकोप होने पर ई.डी.बी. एम्पूल्स एम.एल. प्रति क्विटल के हिसाब से डाले ।


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रबी फसल - गेंहू 
गेंहू की कृषि कार्यमाला (संक्षिप्त)
भूमि का चुनाव एवं तैयारी - 
गेंहू की खेती उचित जल प्रबंध के साथ सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है।
विपुल उत्पादन के लिये गहरी एवं मध्यम दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त है।
असिंचित क्षेत्र  
वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में छोटे-छोटे कन्टूर बना कर भूमि के कटाव और प्रत्येक जल को रोका जाना 
चाहिये। गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें। नमी संरक्षण हेतु प्रत्येक वर्षा के बाद बतर आने पर
समय-समय पर खेत की जुताई करते रहें तथा वर्षा समाप्त होने पर प्रत्येक जुताई के बाद अवष्य
लगायें।
सिंचित क्षेत्र  
खरीफ फसल काटने के तुरंत बाद ही जमीन की परिस्थिति के अनुसा जुताई करें। यदि खेत कड़ा
हो और जुताई सम्भव न हो तब सिंचाई देकर जुताई करें। दो या तीन बार बखर या हल चलाकर
जमीन भुरभुरी करेंअंत में पाटा चलाकर भूमि समतल बनायें।
बुवाई का समय
बुवाई का समय - सिंचाई की व्यवस्था के आधार पर निम्नानुसार बोनी करे-
  1. असिंचित गेंहू-15 अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक,
  2. अर्धसिंचित गेंहू 15 अक्टूबर से 10 नवंबर तक
  3. सिंचित गेंहू (समय से) 10नवंबर से 25 नवम्बर तक
  4. सिंचित गेंहू (देरी से) 05 दिसम्बर से 20 दिसम्बर तक।
बीज की मात्रा   
सिंचित एवं असिंचित किस्मों के लिये 40 किलोअसिंचित देर से बोई जाने वाली किस्मों के लिये
48 किलो प्रति एकड़ बीज दर रखी जाती है। बीज की मात्रा का निर्धारण दानों के वजन एवं अंकुरण
क्षमता पर निर्भर करता है। सामान्यत: 38 ग्राम प्रति एक हजार बीज के वजन वाली किस्मों का बीज
40 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से बोयें। देरी से बोनी की स्थिति में बीज दर में 20-25 प्रतिशत
बढ़ोतरी करके बोनी करें। अंकुरण कम होने की दशा में बीज दर आवष्यकता अनुसार निर्धारण कर
बोनी करें। 
बीजोपचार 
दीमक के नियंत्रण हेतु बीज को कीटनाशक दवा क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. 400 मि.ली. लीटर पानी
में घोल बनाकर प्रति क्विंटल बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। इसके पष्चात् कार्बोक्सिन(विटावेक्स
75 डब्ल्यू.पी.) या बेनोमिल (बेनलेट 50 डब्ल्यू.पी.) 1.5-2.5 या थाइरम 2.5 - 3 ग्राम दवा ग्राम प्रति 
किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई पूर्व बीज को एजेटोबेक्टर 5-10ग्राम एवं पी.एस.बी. 
कल्चर 10-20 ग्राम प्रति किलो ग्राम के हिसाब से उपचारित करें। 
बुवाई का तरीका  
असिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. अर्धसिंचित अवस्था में कतार की दूरी 
23-25 से.मी. तथा सिंचित अवस्था में कतार से कतार की दूरी 20 -23 से.मी. रखें। पिछेती बोनी
की अवस्था में कतार से कतार की दूरी 15-18 से.मी. रखना चाहिये। बीज की बुवाई3 -4 से.मी.
गहराई पर करें। शुष्क बुवाई की स्थिति में उथली बोनी अंकुरण के लिये लाभप्रद होती है। 
उन्नत किस्में -- 
क्र 
कृषि पारिस्थितिकी
पिसी किस्में
कठिया किस्में
अवधि दिनों मेंÆ 
उपज क्विं प्रति एकड़
1
असिंचित/अर्धसिंचित 
जे.डब्ल्यू.एस. -17,सुजाता एच.डब्ल्यू.2004, एच.आई. 1500,एम.पी. 3020, सी 306
एच.डी. 4672 अमर,एच.आई. 8627 
135-140
6-8
2
सिंचित समय पर बोनी हेतु
एम.पी. 1142, एच.आई.1077, जी.डब्ल्यू 273,जी.डब्ल्यू 322, जी.डब्ल्यू190

राज 1555, एच.डी.4530, एच.आई. 8498,एच.आई 8381, जे.डब्ल्यू1106 सुधा 
115-125
16-20
सिंचित देरी से बोनी हेतु
डी.एल. 788-2, लोक-1,जी.डब्ल्यू 173, एम.पी.4010, एच.डी. 2864
-
95-110
15-16
खाद उर्वरक की मात्रा  
  अ. असिंचिम अवस्था 
आधार खाद के रुप में 16 किलो ग्राम नत्रजन, 8 किलोग्राम स्फुर प्रति एकड़ बुवाई के समय दुफन या 
नारी के अगले पोर से देना चाहिये। मिट्टी परीक्षण में यदि पोटाश की मात्रा कम पाई जाती है तो
किलो ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के समय देना चाहिये। खाद को बीज से 2-3 से.मी. नीचे 
डालना चाहिये। 
  ब. अर्धसिंचित अवस्था
नत्रजन 24 किलोग्रामस्फुर 16 किलोग्राम तथा किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ देना चाहिये। स्फुर एवं 
पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी बोनी के समय आधार रुप मेंशेष आधी 12 किलोग्राम 
मात्रा प्रति एकड़ प्रथम सिंचाई पर दें।
  स. सिंचित अवस्था  
सिंचित अवस्था - सिंचित अवस्था मेें नत्रजन 40-48 किलोग्रामस्फुर 24 किलो ग्राम तथा पोटाश
12 किलोग्राम प्रति एकड़ देना चाहिये। बोनी के समय नत्रजन आधार रुप में 1/2 तथा पूरी मात्रा में 
स्फुर व पोटाश देना चाहिये। शेष 1/2 नत्रजन में से 1/4 प्रथम सिंचाई 20-21पर तथा 1/4 दूसरी सिंचाई 
40-45 दिनों पर देना चाहिये। जिन खेतों में मिट्टी परीक्षण जस्ते की कमी पाई जाती है वहां 
10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ बुवाई के पहले खेत में आधार खाद के रुप में देना चाहिये।
यदि खेतों में सतत् गेंहू की खेती की जा रही है तो वर्ष में एक बार 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की 
दर से जिंक सल्फेट डालना चाहिये।
सिंचाई प्रबंधन
सिंचाई की उपलब्धता के आधार पर गेंहू की विभिन्न अवस्थाओं पर निम्न तालिका के अनुसार सिंचाई करें-
सिंचाई
शीर्ष जड़ अवस्था
कल्ले बनने की अवस्था 
गभोट की अवस्था
फूल बनने की अवस्था
दूध अवस्था
दाने भरने की अवस्था
18-21 दिन
40-42 दिन
55-60 दिन
65-70दिन
80-85 दिन
100-105 दिन
एकसिंचाई
x
x
x
x
x
दो सिंचाई
x
x
x
x
तीन सिंचाई
x
x
x
चार सिंचाई
x
x
पांच सिंचाई
x
छ: सिंचाई
खरपतवार प्रबंधन  
अ. चौड़ी पत्ति वाले खरपतवार
इनके नियंत्रण के लिये 2-4, डी- सोडियम साल्ट 200 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर 200 लीटर 
पानी में घोल बनाकर 25-30 दिन बाद छिड़काव करें। दवा का 40 दिन बाद छिड़काव फसल के लिये 
हानिप्रद होता है। गेंहू के साथ चनामसूरमटर की फसल होने पर इस दवा का प्रयोग न करें। 
ब. सकरी पत्ती वाले खरपतवार 
संकरी पत्ती वाले खरपतवार में जंगली जईचिरैया बाजरा की समस्या पाई गई है। इससे बीज की 
गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जिन खेतों में खरपतवार दिखाई दे उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर दें। यदि 
खेत में नींदा बहुत अधिक है तो फसल चक्र अपनायें। ऐसी स्थिति में बरसीम या रिजका की फसल 
लेना लाभप्रद है क्योंकि चारे की कटाई के साथ ये खरपतवार कट कर नष्ट हो जाते हैं। रासायनिक 
नियंत्रण हेतु-
  • मेटाक्सुरान ;डोसानेक्सद्ध 400.600 ग्राम सक्रिय तत्व या पेन्डीमिथलीन 400
    ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ की दर से बोनी के तुरंत बाद तथा अंकुरण के
    पहले 250 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
  • आइसोप्रोटूरान 300 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति एकड़ 250 लीटर पानी में घोल
    बनाकर बोनी के 30.35 दिन बाद छिड़काव करें। इसके प्रयोग से दोनों ही
    प्रकार के खरपतवारनियंत्रित किये जा सकते हैं।
  • खेत में दोनों प्रकार के नींदा है तो आइसोप्रोटूरान 300 ग्राम सक्रिय तत्व तथा
    2.4ए डी 200 ग्राम सक्रिय तत्व का मिश्रण प्रति एकड़ की दर से उपरोक्त
    बताई विधि अनुसार उपयोग करें। इस मिश्रणों के प्रयोग से चिरैयाए बाजराए
    जंगली जई एवं अन्य खरपतवारों को प्रभावी रुप से नियंत्रित किया जा सकता है।
  • नींदा नाशक दवा का छिड़काव प्रथम सिंचाई के एक सप्ताह बाद करें। छिड़काव
    के समय मिट्टी में नमी का होना अति आवष्यक है।
पौध संरक्षण-  
अ. रोग
गेंहू की उपज पर रोग के प्रकोप से उपज में काफी प्रभाव होता है। केवल गेरुआ रोग से ही गेंहू की 
उपज में लगभग 12 प्रतिशत की हानि होती है।

अ. भूरा अवस्था : गेंहू की पत्तियां पर नारंगी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है जो गोल होते हैं
ब. काला गेरुआ : इसका प्रकोप अधिकतर तने पर आता है।
स. पीला गेरुआ : इस रोग में पत्तियां की उपरी सतह पर पीले रंग धब्बे उभर आते हैं।
इन रोगों की रोकथाम के लिये रोगरोधी किस्में लगायें तथा उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करेंफसल 
की सामयिक बोनी करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर जिंक मेंगनीज कार्बामेट 800 ग्राम या जिनेव
किलो ग्राम पति एकड़ 400 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें।
कड़वा रोग - यह बीज जनित रोग है। रोगी पौधों में बलियां कुछ पहले निकल आती हैं। इन बालियों 
में दानों के स्थान पर कहैजो हवा केझोंके के साथ एक पौधे से दूसरे पौधों तक पहुंच जाता है। 
रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिये। रोगरोधी किस्मों काोला चूर्ण भरजाता ही लगाना 
चाहिये। बोनी के पहले बीज को बीटावेक्स कार्बोक्सिन 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार 
करना चाहिये।
  • कर्नलबंट ण् इस रोग का प्रभाव पर होता है। दानों में काले रंग का पावडर बन जाता
    है। यह रोग बीज द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम के लियेजिस खेत में रोग लगा हो
    उस खेत में 2.3 वर्ष तक गेंहू नहीं बोना चाहिये। बोने से पहले बीज को थायरम
    2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज केदर से उपचारित करें। फूलने की अवस्था में
    सिंचाई न करें।
  • पर्ण ब्लास्ट . पत्तियां किनारों से सूखना प्रारम्भ करती है। आरम्भ में पत्तियो में
    अंडाकर सूखे धब्बे दिखाई देते हैंए बाद में यह टूटकर पूरी पत्तियाें में फैल जाते है।
    नियंत्रण हेतु डायथेन ;एम.45 0.25 प्रतिशतद्ध के घोल का छिड़काव फसल पर करें।
ब. कीट 
गेंहू की फसल में दीमकजडमाहोभूरी मकड़ी आदि कीटो का प्रकोप होता है। इनके नियंत्रण हेतु 
एकीकृत कीट प्रबंधन विधि अपनाये।
एकीकृत कीट प्रबंधन
  • खेत की अच्छी तरह जुलाई करना चाहिये।  
  • कच्ची व अधपकी गोबर की खाद का प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि इसके प्रयोग
    से दीमक  के प्रकोप की सम्भावना अधिक होती है।
  • खेत के आसपास मेढ़ो में यदि दीमक का बमीठा हो तो उसे गहरा खोदकर नष्ट कर देना चाहिये। 
  •  गेंहू की बुवाई समय पर तथा बीज उपचारित करें। यदि दीमक के प्रकोप की
    सम्भावना है तब बीज को क्लोरोपायरीफास 20ईण्सीण् 400 मिण्लीण् 5 लीटर
    पानी में घोलकर 100 किलोग्राम बीज का उपचारित करें। देरी से बोये गये
    ;दिसम्बर.जनवरीद्ध गेंहू पर जड़ माहो का प्रकोप अधिक होता है। अतरू समय पर
    बोनी करें।
  • खड़ी फसल पर दीमक या जडमाहो का प्रकोप होने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईण्सीण्
    500 मिण्लीण् प्रति एकड़ की दर से दवा को सिंचाई जल के साथ दें। अर्धसिंचित
    भूमि में उपरोक्त दवा की मात्रा 3 लीटर पानी में घोलकर 50 किलोग्राम रेत में
    मिलाकर खेत में फैलाकर पानी लगावें।
  • अर्धसिंचित फसल में नवम्बर.दिसम्बर माह में कल्ला छेदक भृंग नियंत्रण के लिये
    मेलाथियान 200 मिण्लीण् या मिथाइल डेमेटान250 मिण्लीण् दवा का 200 लीटर
    पानी में घोलकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। इससे जेसिड का भी नियंत्रण हो जाता है।
  • भूरी मकड़ी का प्रकोप असिंचित गेंहू पर होता है। नियंत्रण के लिये फारमोथियान 25
    ईण्सीण् का 260 मिण्लीण् प्रति एकड़ या मिथाइल डेमेटान का 260 मिण्लीण् प्रति
    एकड़ की दर से छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन बाद दवा का पुनरू
    छिड़काव करें।
कटाई एवं गहाई
  • पकी फसल की कटाई जल्दी करना चाहियेए क्योंकि आग एवं ओला से कभी-कभी
    पकी फसल को बहुत नुकसान होता है। अधिक पकी फसल काटने से बालियां टूटती है
    और दाने झड़ते है। फसल की कटाई सुबह और शाम के समय करना चाहियेए इससे
    दाने कम झड़ेंगे। कटाई तेज धार वाले हंसिया से करना चाहिये। काटी गई फसल को
    तुरंत बोझों में बाँध लेना चाहियेएक्योंकि कटाई के समय तेज हवा चलने से कटी हुई
    फसल उड़ कर खराब हो जाती है। काटी गई फसल के बोझों को बैलगाड़ी या ट्रेक्टर
    ट्राली से ढुलाई करके खलिहान से इकट्ठा करना चाहिये। खलिहान में थ्रेसर या बैलों
    से गहाई करना चाहिये। इसके बाद उड़वानी द्वारा दाना अलग करके धूप में सुखाकर
    भंडारित करना चाहिये। खलिहान में आग और चूहों से बचाव करना चाहिये।

    औसत उपज - सिंचित दशा में : 16-20 क्विंटल प्रति एकड़
    बारानी दशा में : 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ं
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चना की कृषि कार्यमाला -- 
भूमि का चुनाव एवं तैयारी - 
चने की खेती क्षारीय भूमि के अतिरिक्त सभी प्रकार की मध्यम से भारी भूमि भूमि में की जा सकती है। खरीफ फसल कटाई उपरान्त हल या ट्रेक्टर से जुताई कर बखरनी की जावे । यदि ढेले बहुत बड़े हो तो पटेला चलावें । यदि ढ़ेले बहुत बड़े हों तो पलेवा कर खेत तैयार करें ।
बोने का समय - 
चने की बोआई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर है। देरी से बोनी की स्थिति में दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक भी बोनी की जा सकती है। देरी से बोनी करने के लिए कम अवधि की किस्मों का चयन आवश्यक होगा। 
चने की उत्तम जातियाँ :- 
किस्म
पकने की अवधि
औसत पैदावार क्वि/हेक्टर
विशेषताऐं
जवाहर चना 74
110 - 120
15 - 18
उकटा अवरोधीदेर से बुवाई के लिये उपयुक्त
भारती (आई.सी.सी.व्ही.10)
110 - 120
12 - 15
उकटा अवरोधी
जवाहर चना 218
115 - 120 
15 - 20
उकटा अवरोधी
विजय 
115 - 120
12 - 15 
उकटा अवरोधी
जवाहर चना 322
115 - 125
15 - 20
बड़ा दाना उकटा निरोधी तथा स्टंट विषाणु अवरोधी
जवाहर चना 11
115
15 - 20
बड़ा दाना उकटा निरोधीशुष्क मूल विगलन सहनषील सूखा व चने की इल्ली के प्रति सहनषील
जवाहर चना 130
97-105
15 - 20
उकटा निरोधीस्तम्भ मूल विगलनबीजीएम तथा स्टंट हेतु मध्यम अवरोधी
जवाहर चना 16
110
15 - 20
उकटा अवरोधी
जवाहर चना 315
115
15 - 20
उकटा अवरोधी
बी.जी.डी. 72
115-120
6 - 7 
उकटा अवरोधी
जाकी-9218 101
93-125
18
उकटा अवरोधी
गुलाबी 



जवाहर गुलाबी चना 1
120-125
6 - 7
भूनने के लिये उपयुक्त
काबुली


उकटा अवरोधीकाबुली
काक 2
110-150
6 - 7
उकटा अवरोधी
जे.जी.के. 1
110-150
6 - 7
उकटा अवरोधी
बी.जी. -1053
120-125
20
उकटा अवरोधी,
बीज की मात्रा एवं बुवाई की विधि-  
बीज स्वस्थ एवं अच्छी अंकुरण क्षमता का हो। चना फसल बोने के लिए 30 किलो बीज प्रति एकड़ लगता है । देरी से बोने एवं दानों का आकार बड़ा होने पर 40 किलो तक बोया जा सकता है। चने में कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए ।  
बीजोपचार :-  
बीज जनित रोगों की रोकथाम हेतु बीजोपचार आवश्यक हैं बोनी के पूर्व ग्राम ट्राइकोडर्मा बिरडी प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में ग्राम राइजोबियम कल्चर ग्राम पी.एस.बी. कल्चर से बीजोपचार करवाना चाहिए । ट्राइकोडरमा बिरडी न मिलने पर ग्राम थीरम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें एवं बाद में कल्चर एवं पी.एस.बी. से बीजोपचार करना चाहिए ।
जैविक खाद एवं उर्वरक -
चने की फसल में असिंचित दशा में 1.50 टन नाड़ेप खाद एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. या टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. देने से अच्छी उपज मिलती है। सिंचिंत फसल में टन नाडेप खाद एवं 1.20 किलो पी.एस.बी. कल्चर या 1-2टन वर्मी कल्चर एवं 1.2 किलोग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति एकड़ देने से अच्छी उपज मिलती है।
टन कम्पोस्ट एवं 800 ग्राम पी.एस.बी. तथा 20 किलो डी.ए.पी. प्रति एकड़ देने से भी चना का भरपूर उत्पादन मिलता है । नाडेप एवं वर्मीकम्पोस्ट के साथ 20 किलो डी.ए.पी. से भी भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है।
सिंचाई :- 
चने की फसल में दो सिंचाई लगती हैपहली 45 दिन में फल आने पर तथा दूसरी 75 दिन बाद फल बनने पर करना चाहिए । यदि सिंचाई उपलब्ध है तो फूल आने के पहले 40 - 45 दिन में सिंचाई करनी चाहिए।
कीट नियंत्रण :- 
चने की फसल में चने की इल्ली का प्रकोप ही अधिक होता है । इसका पहले जैविक नियंत्रण करना चाहिए । यदि जैविक नियंत्रण से कंट्रोल न हो तो फिर रासायनिक कीट नाशकों का उपयोग करना चाहिए। 
 जैविक कीट नियंत्रण :- 
चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
  • फेरोमेन ड्रेप एक एकड़ में लगाकर ।
  • प्रकाश प्रपंच द्वारा ।
  • नीम बीज सत प्रतिशत का उपयोग कर ।
  • टी आकार के प्रति एकड़ 20 पक्षी ठिकान लगाकर।
  • परजीवी रोगाणु ट्राइकोग्रामाटिलोनोमम कोटिडीया आदि का उपयोग भी किया जा सकता है ।
  • श्यामातुलसी एवं गेंदा के पौधे फसल के बीच में लगाने से इल्ली नहीं लगती ।
     
क्र0
कीटनाशक
मात्रा प्रति एकड़
1
इण्डोसल्फान (थायोडानइण्डोसेल)35. ई.सी. 
500 मि.ली.
2
प्रोफेनोफॉस (क्युराक्रान) 50 ई.सी
600 मि.ली.
3
क्विनालाफज्ञस (इकालक्स) 25 ई.सी.
500 मि.ली.
प्रोफेनोफास / सायपरमेथ्रिन
500 मि.ली.
5
ट्रायजोफास / डेल्टामेथ्रिन 36 ई.सी.
600 मि.ली.
6
मिथोमिल ( डुनेट 40 एस.वी / लैेनेट 40 एस.पी) 
400 मि.ली.
क्विनालफास / सायपरमेथ्रिन 25 ई.सी. 
500 मि.ली./ 60मि.ली.
8
 क्विनालफॉस 1.5 : चूर्ण
कि.ग्रा
9
इन्डोसल्फज्ञन 4 : चूर्ण
कि.ग्रा
10
पैराथियॉन 2 : चूर्ण
 8 कि.ग्रा
  रोग एवं नियंत्रण :-
 चना फसल में जड तथा तने में निम्न रोग लगते है:-
  • उकटा रोग।
  • स्तरल मूल संधि विगलन रोग ।
  • शुष्क मूल विगलन रोग ।
  • अल्टरनेरिया झुलसा रोग ।
  • एस्कोकाइटा झुलसा रोग ।
  नियंत्रण :-  
चने की इल्ली का जैविक कीट नियंत्रण निम्नानुसार किया जा सकता है :-
  • रोगी पौधों को निकाल कर जला दें।
  • इस रोग से ग्रसित बीजों को काम में न लें ।
  • चने के साथ गेंहूंराई या गेंहू अंतरवर्तीय फसलों को बोये।
  • फसल को अधिक बडवार से बचायें ।
  • रोग का प्रकोप होने पर डायथेन एम. 45 का 0.3% घोल का छिडकाव करें
  • äÆसकोकाइटा रोग का प्रकोप होने पर क्लोरोथायोनिक कवक 0.2% कवक का छिड़काव करें 
भण्डारण :- 
चना को अच्छी तरह सुखाकर फिर छाया में ठंडा कर सफाई कर एवं नीम की पत्ती या मेलाकिया 0.05% का स्प्रे भण्डार गृह या बोरां में करें । कीडे का प्रकोप होने पर ई.डी.बी. एम्पूल्स एम.एल. प्रति क्विटल के हिसाब से डाले ।


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